“ये क्या लगाए बैठे हैं?” मां ने टीवी की तरफ देखते हुए, अचरज भरी आवाज़ में कहा।
दरअसल पापा टीवी पर कार्टून देख रहे थे।
“बचपना करना तो आदत है आपकी, लेकिन आज कुछ ज़्यादा नहीं हो गया?” मम्मी ने अपने तंज पर एक पॉवर अप किया।
“अरे 336 चैनल छान गया, ये टीवी पर कुछ आता ही नहीं तो क्या करूं। एक संडे का दिन तो मिलता है इत्मीनान से टीवी देखने को, वो भी इन सब ने बर्बाद कर रखा है।” पापा ने अपने बचाव में, टीवी चैनल वालों की आलोचना का उत्कृष्ट सैंपल पेश किया।
बात तो सही ही थी, जैसे जैसे टीवी चैनल बढ़ते गए, वैसे वैसे देखने लायक प्रोग्राम कम होते गए। बचपन में रंगोली से हुई सुबह श्री कृष्णा और डिज़्नी आर से गुजरते हुए, शाम 4 बजे वाली पिक्चर दिखा कर विदा होती थी।
ज़्यादा ऑप्शन थे नहीं, मगर जितने थे, ठीक ही थे। चूंकि ऑप्शन थे नहीं तो पांच साल पुरानी पिक्चर भी आ जाए, तो हल्ला हो जाता था कि नई पिक्चर आ रही है टीवी पर आज।
मज़े की बात है कि 4 बजे आने वाली लगभग किसी पिक्चर का क्लाइमेक्स मैने नहीं देखा है। ऐसा यूं की पिक्चर शुरू होती थी 4 बजे, होती थी 3 घंटे की, उसमें प्रचार का एक घंटा और, मतलब खत्म होती थी 8 बजे। और 7 बजे से मेरे पढ़ाई का वक़्त हो जाता था।
कितनी ही फिल्में आज तक ऐसी हैं, जिनका अंत मुझे मालूम नहीं। मेरे लिए घातक से घातक एक्शन फिल्म, रोमांटिक ही होती थी, क्यूंकि जितने देर तक की फिल्म मैं देख पाता था, उतने देर तक सिर्फ हीरो हेरोइन मिले होते थे, बस।
आजकल मैं दूरदर्शन नहीं देखता, शायद ही कोई देखता हो। आजकल मैं केबल भी नहीं चलाता, ये वाली आबादी भी कम होती जा रही है। आजकल ज़माना है ऑन डिमांड एंटरटेनमेंट का। फायर स्टिक और नेटफ्लिक्स का।
आजकल आप जो चाहें, जहां चाहें देख सकते हैं। आप टीवी के ब्रेक, वक़्त और रफ्तार, सब चुन सकते हैं। हज़ारों की तादाद में फिल्में और शो आपके मर्ज़ी के ग़ुलाम हैं।
आप आज कोई सी भी फिल्म शुरू से शुरू कर सकते हैं और बीच में छोड़ सकते हैं। या फिर बीच से शुरू कर पूरी कर सकते हैं।
आज मैंने ‘ रजनीगंधा ‘ फिल्म पूरी की। मुझे आज तक नहीं मालूम था कि दीपा ने संजय और नवीन में से किसको चुना। आज पता चल गया। 14 साल पहले शुरू हुई एक फिल्म, मैंने आज पूरी की है। आज मैंने 14 साल पहले का सन्डे पूरा किया है।